क्या क़हर था 'हाशिम' जो न मरता कोई दिन और करता तिरी रहमत का तमाशा कोई दिन और बे-पर्दा ख़वातीन की बे-राह-रवी पर बच्चों की तरह फूट के रोता कोई दिन और हर सुब्ह को हर शाम को मक्खन की दुकाँ पर मक्खन की मिलावट पे झगड़ता कोई दिन और हर गाम महीलाओं से टकराता सड़क पर कहतीं उसे झुँझला के सब अंधा कोई दिन और हर रोज़ उन्हें दूर से आईना दिखा कर रीशाईली मुल्लाओं पे हँसता कोई दिन और मिलती न चारा-गाह-ए-सियासत में अगर घास मैदान-ए-ज़राफ़त में तू चरता कोई दिन और मरता जो न 'हाशिम' तो क़सम ज़िंदा-दिली की होता तिरी दुनिया में तमाशा कोई दिन और