शो'ले बरस रहे हैं लब-ए-जूएबार से है मुख़्तलिफ़ बहार ये कितनी बहार से ज़िंदाँ की तीरगी हो कि मक़्तल की ख़ामुशी हैं मुतमइन किसी न किसी ए'तिबार से कैसे कहें कि बारिश-ए-ख़ूँ की उमीद थी साए तो मुख़्तलिफ़ न थे अब्र-ए-बहार से उन की जबीं पे शबनम-ए-एहसास-ए-दिलबरी तश्बीह दीजिए गुहर-ए-ताबदार से उस जान शेर-ओ-फ़न से 'शमीम' आज गुफ़्तुगू आग़ाज़ कीजिए ग़ज़ल-ए-ख़ुश-गवार से