मुस्तक़िल रंज-ओ-अलम तोड़ के रख देते हैं अच्छे अच्छों को ये ग़म तोड़ के रख देते हैं लाख बातिल के सितम तोड़ के रख देते हैं अह्ल-ए-तौहीद सनम तोड़ के रख देते हैं दौर-ए-हाज़िर में रक़ीबों की ज़रूरत क्या है दोस्तों ही के करम तोड़ के रख देते हैं पाला जाता है बड़े नाज़ से जिन को अक्सर वही बेटे तो भरम तोड़ के रख देते हैं 'ग़ालिब'-ओ-'मीर' से कहने को बचा ही क्या है फिर भी कुछ लोग क़लम तोड़ के रख देते हैं इन हसीनों पे यक़ीं करना हिमाक़त है फ़क़त ये तो हर अह्द-ओ-क़सम तोड़ के रख देते हैं हम ने तो फ़त्ह के लहराए वहाँ भी परचम हौसले भी जहाँ दम तोड़ के रख देते हैं नींदें उड़ जाती हैं दिल डूबने लगता है 'फ़राज़' बे-वफ़ाओं के सितम तोड़ के रख देते हैं