न अहल-ए-दिल से न अहल-ए-नज़र से मिलता है शुऊर-ए-ज़ात फ़क़त अपने दर से मिलता है तुम्हारे फ़ैज़ से खिलते हैं ज़िंदगी में गुलाब जुनूँ को रंग तुम्हारी नज़र से मिलता है बिखर रही हैं ज़ियाएँ निखर रही है फ़ज़ा तुम्हारा हुस्न जमाल-ए-सहर से मिलता है फ़रोग़-ए-शौक़ है या इर्तिक़ा-ए-जज़्ब-ए-दरूँ पता अब अपना तुम्हारी ख़बर से मिलता है वही है हासिल-ए-इशरत वही वक़ार-ए-हयात सुकून-ए-दिल जो ग़म-ए-मो'तबर से मिलता है कहाँ फिर इज़्न-ए-सफ़र मिल गई अगर मंज़िल सफ़र का ज़ौक़ फ़क़त रहगुज़र से मिलता है वो कम-सुख़न हैं मगर हम से बे-नियाज़ नहीं सुराग़-ए-दिल सुख़न-ए-मुख़्तसर से मिलता है निसार उस पे दो-आलम के मय-कदे 'परवेज़' वो एक जाम जो उन की नज़र से मिलता है