न बातें कीं न तस्कीं दी न पहलू में ज़रा ठहरे जो तुम आए तो क्या आए जो तुम ठहरे तो क्या ठहरे किस का रंग-ए-उल्फ़त क्या जमे वाँ ये भी मुश्किल है कि उन के दस्त ओ पा में एक दम रंग-ए-हिना ठहरे दिल-ए-मुज़्तर ब-शक्ल-ए-बर्क़ दम लेने नहीं देता मुझे आराम आ जाए जो पहलू में ज़रा ठहरे वफ़ादारी हुई बे-कार मरना खेल आ ठहरा ख़ुदा जाने कि अब क्या रंग-ए-आईन-ए-वफ़ा ठहरे दिमाग़ ऐसा ही कुछ नाज़ुक जलें ऐसे ही कुछ बद-गो कहूँ इक हर्फ़-ए-मतलब और वाँ इक माजरा ठहरे चमन में आग सी पैराहन-ए-गुल से भड़क उट्ठी फ़ुग़ाँ से एक दम तो बुलबुल-ए-आतिश-नवा ठहरे अगर जाना ही ठहरा है तो अच्छा दिल भी ले जाओ किसी पहलू किसी सूरत तो जान-ए-मुब्तला ठहरे कभी शाद ही कभी ग़म है कभी कुछ और आलम है दिल इक मेहमाँ-सरा है इस में 'रौनक़' कोई आ ठहरे