न दलीलें न ही अबाबीलें सब्र के घूँट हैं वही पी लें कैसी बे-ख़्वाब हैं सभी आँखें जिस तरह ख़ुश्क-ओ-बे-अमाँ झीलें मात खा जाएँ ज़ब्त से अपने और इंसानियत पे बाज़ी लें एक इंसान का लहू कर के उस पे शैतान की गवाही लें कूच कर जाएँ ऐसे कूचे से साथ नाकामियों की पूँजी लें जहल में सहल है उन्हें शायद उस पे इक दूसरे से थपकी लें बस नहीं चल रहा फ़रिश्तों का वर्ना पल्टी हुई ये धरती लें जिन के शजरे में बस जहालत है उन से नस्लों की रहनुमाई लें राख सूरज ही की निकलती है जब किसी रात की तलाशी लें ये स्याही है इस लिए शायद ताकि अख़बार अपनी सुर्ख़ी लें कितने ही गिर्ये हम पे वाजिब हैं पर सुहूलत नहीं कि रूही लें सिर्फ़ पैदा हों उस ज़माने में और फिर उम्र भर तसल्ली लें सख़्त नादिम हूँ अपने बच्चों से यही माहौल है अगर जी लें