न फ़ासले को न रख़्त-ए-सफ़र को देखते हैं अजीब रंज से दीवार-ओ-दर को देखते हैं न जाने किस के बिछड़ने का ख़ौफ़ है उन को जो रोज़ घर से निकल कर शजर को देखते हैं ये रोज़-ओ-शब हैं इबारत उसी तवाज़ुन से कभी हुनर को कभी अपने घर को देखते हैं तू इस क़दर भी तवज्जोह पे ख़ुश-गुमान न हो तुझे नहीं तिरी ताब-ए-नज़र को देखते हैं फ़िराक़ हम को मयस्सर भी है पसंद भी है पे क्या करें कि तिरी चश्म-ए-तर को देखते हैं हम अहल-ए-हिर्स-ओ-हवस तुझ से बे-नियाज़ कहाँ दुआ के बा'द दुआ के असर को देखते हैं ये बे-सबब नहीं सौदा ख़ला-नवर्दी का मुसाफ़िरान-ए-अदम रहगुज़र को देखते हैं वो जिस तरफ़ हो नज़र उस तरफ़ नहीं उठती वो जा चुके तो मुसलसल उधर को देखते हैं हमें भी अपना मुक़ल्लिद शुमार कर 'ग़ालिब' कि हम भी रश्क से तेरे हुनर को देखते हैं