न फ़ासले रहे क़ाएम न क़ुर्बतें अब के अजीब हाल से गुज़री हैं उल्फ़तें अब के हमारे साथ जो चलता था वो नहीं आया गुज़र चली हैं बहारों की मुद्दतें अब के हर इक क़दम पे सराब-ए-वफ़ा में डूबे थे हर इक क़दम पे मिली हैं हक़ीक़तें अब के वो यक-ब-यक जो मिलेगा तो कैसे देखेंगे हुई हैं जिस से मिले हम को मुद्दतें अब के बजाए नक़्द-ए-वफ़ा के कुछ और बात करो बदल गई हैं जहाँ की ज़रूरतें अब के नहीं है सिर्फ़ वो तन्हा मैं जैसा समझा था हर एक शहर में देखीं शबाहतें अब के मैं उस से दूर गया था तो आ गया 'आदिल' ख़ुद अपने-आप ये हैं मुझ को हैरतें अब के