न गिरे कहीं न हरे हुए कई साल से यूँही ख़ुश्क पात जुड़े रहे तिरी डाल से कोई लम्स था जो सरापा आँख बना रहा कोई फूल झाँकता रह गया किसी शाल से तिरी काएनात से कुछ ज़ियादा तलब नहीं फ़क़त एक मोती ही मोतियों भरे थाल से तू वो साहिरा कि तिलिस्म तेरा उरूज पर मैं वो आग हूँ जो बुझेगी तेरे ज़वाल से तिरे मौसमों के तग़य्युरात अजीब हैं मैं क़बा बनाने लगा हूँ पेड़ की छाल से