न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा अदा-ए-नाज़ से ये दिल सरा-ए-फ़न में रहा हज़ारों तूफ़ाँ उठाए हैं वक़्त आने पर लहू भी ख़ास अदा से मिरे बदन में रहा मैं एक रंग था रंग-ए-ख़याल-ए-आवारा किसी धनक में किसी रुत के पैरहन में रहा अना ही थी कि न झुकने दिया कभी मुझ को पहाड़ सर पे उठा कर भी बाँकपन में रहा वो मैं ही था कि कोई और था नहीं मा'लूम तमाम उम्र जो मेरे ही जान ओ तन में रहा सफ़ीर-ए-जाँ के लिए मंज़िलें नहीं होतीं कोई पड़ाव भी आया तो वो थकन में रहा उठी जो सैफ़-ए-सितम बे-नियाज़-ए-मौत-ओ-हयात क़लम-ब-दस्त खड़ा वादी-ए-सुख़न में रहा