न हम महव-ए-ख़याल अबरू-ए-ख़म-दार सोते हैं सिपाही हैं ज़ि-बस बाँधे हुए तलवार सोते हैं तुम्हारा सोते सोते चौंक पड़ना खब गया दिल में कि अक्सर ख़ुद-बख़ुद हो हो के हम बेदार सोते हैं इलाही हम को है किस का ख़याल-ए-ख़्वाब-ओ-बेदारी जो लाखों हार उठते हैं हज़ारों यार सोते हैं निगाह-ए-मस्त-ए-साक़ी में है क्या दारा-ए-बेहोशी कि साग़र लग रहा है मुँह से और मय-ख़्वार सोते हैं न कर वसवास दिल में चल वहाँ 'मारूफ़' बे-खटके कि दरबान ऊँघता है और चौकीदार सोते हैं