वही कुछ ज़िंदगी में ज़िंदगी का भेद पाते हैं जो पैहम जुस्तुजू करते हैं बरसों ग़म उठाते हैं जो सच पूछो तो ख़ुद जीते हैं और जीना सिखाते हैं वो दीवाने जो हर तूफ़ान-ए-ग़म में मुस्कुराते हैं कुछ इस अंदाज़ से वो अपनी महफ़िल में बुलाते हैं कि इंसाँ के क़दम उठने से पहले काँप जाते हैं वो पिछली शब को अपने रुख़ से जब पर्दा उठाते हैं मिरा एहसास शाहिद है दो-आलम झूम जाते हैं तअ'ज्जुब क्यों है मेरी बे-ख़ुदी पर अहल-ए-महशर को वो जिस को भी पिलाते हैं कुछ ऐसी ही पिलाते हैं नहीं कुछ ख़ाक-ए-दिल लेकिन पहुँच कर उन के दामन तक यही ज़र्रे मह-ओ-ख़ुर्शीद बन कर जगमगाते हैं मोहब्बत इब्तिदा ता-इंतिहा इरफ़ान-ए-कामिल है मगर हम तो उन्हें पाने से पहले खोए जाते हैं तिरा कूचा ही क्यों रह रह के पैहम याद आता है इसी आलम में आलम और भी तो पाए जाते हैं शिकायत कर रहे हो 'कैफ़' तुम को शुक्र लाज़िम है वो मुश्किल से किसी को अपना दीवाना बनाते हैं