न ज़िंदा न मुर्दा न दुनिया न दीं का मुझे तू ने ज़ालिम न रक्खा कहीं का अबस इम्तिहाँ में लगाते हो वक़्फ़ा भरोसा है क्या मेरी जान-ए-हज़ीं का मुझे घर में गर्दिश है पतली की सूरत ये एजाज़ है चश्म-ए-सेहर-आफ़रीं का पुराना न फ़ित्ना तिरे घर से उट्ठा नया आसमाँ है मगर इस ज़मीं का कभी मेरे तन में कभी उस के घर में यही शग़्ल है मेरी जान-ए-हज़ीं का ग़ज़ब है मिरी उस से तकरार-ए-वादा सितम है जो मौक़ा मिला अब नहीं का सुना तू ने 'आक़िल' अजब रात गुज़री मोहब्बत का मज़कूर निकला कहीं का