न जाने क़ाफ़िले पोशीदा किस ग़ुबार में हैं कि मंज़िलों के चराग़ अब तक इंतिज़ार में हैं बचा बचा के गुज़रना है दामन-ए-हस्ती शरीक-ए-ख़ार भी कुछ जश्न-ए-नौ-बहार में हैं किसी जदीद तलातुम का इंतिज़ार न हो सुना तो है कि सफ़ीने अभी क़रार में हैं पुकारते हैं कि दौड़ो गुज़र न जाए ये दौर चराग़ बुझते हुए से जो रहगुज़ार में हैं अभी तो दूर है मंज़िल ये क़ाफ़िलों के हुजूम अभी तो मरहला-ए-जब्र-ओ-इख़्तियार में हैं अभी बहार ने सीखी कहाँ है दिल-जूई हज़ार दाग़ अभी क़ल्ब-ए-लाला-ज़ार में हैं निखर निखर के जो मस्मूम कर रहे हैं फ़ज़ा कुछ ऐसे फूल भी 'अख़्तर' नई बहार में हैं