न जाने किस ने कहा था भटकते आहू से महक रहा है ये जंगल तिरी ही ख़ुश्बू से झुलस रहा था कई दिन से आँख का सहरा ये दश्त हो गया सैराब एक आँसू से वो हिज्र था कि अंधेरा सा छा गया दिल में वो याद थी कि चमकने लगे थे जुगनू से मिरे लिए तो वो दीवान-ए-'मीर' जैसा था हुआ था नम कभी काग़ज़ जो पहले आँसू से तो आँख भर के उन आँखों में देखना होगा तो होगा ऐसे ही जादू का तोड़ जादू से हवा का ज़ोर है क्या धूप की है क्या शिद्दत कि आँसुओं की दुआएँ बंधी है बाज़ू से हवा के लम्स ने महका दिया मुझे 'फ़ारूक़' हवा ने हाथ रचाएँ हैं किस की ख़ुश्बू से