न काम फ़िक्र से निकला न चल सकी तदबीर किसी तरह से न बदली फिरी हुई तक़दीर ज़मीर-ए-दहर से अँदेशा-ए-ख़िज़ाँ न गया बहार में भी ज़माना है दर्द की तस्वीर तअ'य्युनात में उलझी हुई है फ़िक्र-ए-हयात मिरे ज़वाल की तम्हीद है मिरी ता'मीर अब ए'तिराफ़-ए-ख़ता पर न इस निगाह से देख कि हो न जाए कहीं मुझ से फिर कोई तक़्सीर ज़बान-ए-आम में कहते हैं काएनात जिसे हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-दिल की है मुख़्तसर तफ़्सीर नहीं ख़ुदा की ज़मीं तंग ऐ चमन वालो करेंगे और कहीं हम अब आशियाँ ता'मीर ज़माना 'होश' बदलने को है नई करवट बुझे पड़े हैं बहुत दिन से क़ल्ब-ओ-रूह-ओ-ज़मीर