न कम हुआ है न हो सोज़-ए-इज़्तिराब-ए-दुरूँ तिरे क़रीब रहूँ मैं कि तुझ से दूर रहूँ कहीं कोई तिरा महरम है ऐ दिल-ए-महज़ूँ मुझे बता कि किधर जाऊँ किस से बात करूँ तिरी नज़र ने बहुत कुछ सिखा दिया दिल को कुछ इतना सहल न था वर्ना कारोबार-ए-जुनूँ पुकारती हैं मुझे वुसअ'तें दो-आलम की मैं अपने आप से दामन छुड़ा सकूँ तो चलूँ तिरी वफ़ा न मुझे रास आ सकी लेकिन मैं सोचता हूँ तुझे कैसे बेवफ़ा कह दूँ मिरी शिकस्ता-दिली का न कर ख़याल इतना कहीं न मैं तिरे ख़्वाबों में तल्ख़ियाँ भर दूँ गिरफ़्त-ए-अस्र-ए-रवाँ इस क़दर तो मोहलत दे कि मिट रही है जो दुनिया उसे मैं देख तो लूँ ये किस ख़याल ने की है मिरी ज़बाँ-बंदी तुझी से कहने की बातें तुझी से कह न सकूँ वो इज़्तिराब-तलब था किसी तवक़्क़ो' पर अब उठ चुकी है तवक़्क़ो' अब आ चला है सुकूँ