न कोई नक़्श न पैकर सराब चारों तरफ़ तमाम दश्त असीर-ए-अज़ाब चारों तरफ़ मसीह-ए-वक़्त अब आए तो बस ख़ुदा आए पयम्बरों की ज़मीं और अज़ाब चारों तरफ़ मैं बीचों-बीच खड़ा हूँ सुलगते जंगल में हिसार बाँधे हुए आफ़्ताब चारों तरफ़ हमारे नाम लिखी जा चुकी थी रुस्वाई हमें तो होना था यूँ भी ख़राब चारों तरफ़ फ़सील-ए-दर्द से यादों की धूप ढलती हुई बिखरते टूटते रंगों का ख़्वाब चारों तरफ़ 'मुजीबी' कम नहीं 'फ़िक्री' की दोस्ती की पनाह अगरचे दुश्मन-ए-जाँ बे-हिसाब चारों तरफ़