न क्यूँ तीर-ए-नज़र गुज़रे जिगर से कहीं ये वार रुकते हैं सिपर से किसी से इश्क़ अपना क्या छुपाएँ मोहब्बत टपकी पड़ती है नज़र से हुई है उन के मुश्ताक़ों से रह बंद वो मेरे घर भला आएँ किधर से भला दिल का कहाँ मिलना कि उन की नज़र भी तो नहीं मिलती नज़र से मुझे दीवार हैरत ने बनाया गया है झाँक कर ये कौन दर से कभी टूटें कभी सय्याद काटे ग़रज़ उड़ना नहीं है बाल-ओ-पर से कहाँ की पैरवी जब क़स्द ये हो कि आगे बढ़ के चलिए राहबर से न खोलेंगे तो ये टूटेगा आख़िर कि मैं टकरा रहा हूँ सर को दर से लड़ाई का न मैं तोडूँगा फिर तार ज़रा सी छेड़ हो जाए उधर से अगर जाती है जाँ मिलता है जानाँ हमें तो नफ़अ' अफ़्ज़ूँ है ज़रर से रहा दिल में न हरगिज़ तीर उस का हमें खटका यही था पेशतर से सिवाए शर न कुछ देखा अदू से ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे उस बशर से हुआ गो पाएमाल-ए-ग़ैर 'मजरूह' न सरका यार के पर रहगुज़र से