न क्यों अपनी मोहब्बत को ही बे-लफ़्ज़-ओ-बयाँ कर लें ख़मोशी को ज़बाँ कर लें नज़र को दास्ताँ कर लें हसीं है हुस्न से तेरे ये पस्ती भी बुलंदी भी न क्यों फिर तुझ को सज्दे हम जहाँ चाहें वहाँ कर लें तबस्सुम को लब-ए-लाली पे अपने कुछ बिखरने दो दिल-ए-वीराँ को दम भर हम भी रक़्स-ए-गुलिस्ताँ कर लें यही मौसम यही दिन थे कि हम से क़ाफ़िला छूटा मोहब्बत से हम इक बार और याद-ए-कारवाँ कर लें शिकस्ता पर हैं पहुँचे किस तरह उजड़े नशेमन में ब-सद-हसरत निगाहें क्यों न सू-ए-आशियाँ कर लें निगाहें देखें साक़ी की कि उस के हाथ में साग़र ज़रा ज़ौक़-ए-नज़र का आज हम भी इंतिहा कर लें 'हबीब' इस ज़िंदगी में ये बदी बद-सूरती कैसी हसीं हम क्यों न हुस्न-ए-यार से अपना जहाँ कर लें