मोहब्बत ही अगर तुझ को न रास आई तो क्या होगा तिरे ग़म में तबीअत मेरी घबराई तो क्या होगा तुझे पाने की ख़ातिर किस क़दर बेचैन रहता हूँ तुझे पा कर भी गर तस्कीं नहीं पाई तो क्या होगा नहीं पीता न पी ज़ाहिद मगर ये तो समझ लेता अगर साक़ी ने मय आँखों से बरसाई तो क्या होगा हम उस के दर पे जाने की जो रुस्वाई है सह लेंगे तलाश उस की जो दर पे ग़ैर के लाई तो क्या होगा किए वा'दे भी तुम ने और दी मुझ को तसल्ली भी न तुम आए शब-ए-फ़ुर्क़त न नींद आई तो क्या होगा ख़िज़ाँ के दौर में देखी बहुत गुलशन की बर्बादी मगर अब मौसम-ए-गुल में ख़िज़ाँ आई तो क्या होगा 'हबीब' इस घर को ग़ैर आए जलाने को तो क्या ग़म है सुलगती आग यारों ने जो भड़काई तो क्या होगा