न मंज़िल थी न रस्ता था किया फिर भी सफ़र बरसों

न मंज़िल थी न रस्ता था किया फिर भी सफ़र बरसों
वो जल्वा तो गया लेकिन रहा उस का असर बरसों

सवाल-ए-ज़िंदगी अक्सर किए रहता परेशाँ था
तलाश-ए-ज़िंदगी में ही रही अपनी नज़र बरसों

मिली जो माँ मुझे कल रात सपने में तो याद आया
नहीं जाना हुआ मेरा है अब के अपने घर बरसों

नहीं देती हमारी ज़िंदगी भी आज-कल फ़ुर्सत
तुम्हारा भी नहीं होता है अब आना इधर बरसों

मिरी महरूमियों से वास्ता था क्या भला इस का
मिला पाया नहीं यारब मैं दुनिया से नज़र बरसों

न जाने इंतिज़ार उस का 'सलील' रहता है क्यों तुझ को
नहीं रहती जिसे शायद ख़ुद अपनी ही ख़बर बरसों


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