न निशात-ए-चारासाज़ी न मलाल-ए-कम-निगाही मुझे उस नज़र ने मारा बे-गुनाह बे-गुनाही सर-ए-अंजुमन ग़नीमत है बुतों की कम-निगाही कि सुकून-ए-दिल पे आती है नज़र से भी तबाही ये सियासत-ए-बहाराँ है ख़िज़ाँ की बे-पनाही कि जो जल उठे नशेमन तो चमन न दे गवाही तिरी अंजुमन से बाहर कई आफ़्ताब निकले न धुली किसी सहर से किसी रात की सियाही तिरे शहर से निकलते ही मिज़ाज-ए-दहर ला ही न वो रब्त-ए-शबनम-ओ-गुल न वो बाद-ए-सुब्ह-गाही तिरे शहर-ए-आरज़ू में यूँही कट गई हैं रातें न जुनूँ की आँख झपकी न ख़िरद ने ली जमाही दिए तेरी रहगुज़ारों के जहाँ जहाँ जले हैं न चराग़-ए-बुत-कदा है न चराग़-ए-ख़ानक़ाही न सनम-कदे की मंज़िल न हरम का आस्ताना वो नज़र जहाँ उठी है वहीं रुक गए हैं राही कोई 'शोर' ये तो पूछे दर-ओ-बाम-ए-ख़ुसरवी से ये लहू से किस के रौशन है चराग़-कज-कुलाही