न पूछ ऐ हम-नफ़स अफ़्साना-ए-रंज-ओ-मेहन मेरा न है बस में ज़बाँ मेरी न क़ाबू में दहन मेरा शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ने महका दिया दिल का हर इक गोशा जो बिखरीं यार की ज़ुल्फ़ें बना पल्लू ख़ुतन मेरा सता ले जितना जी चाहे मगर इतना समझ रखना रसा होगा कभी तो नाला ऐ चर्ख़-ए-कुहन मेरा न दामन ही सलामत है न जेब-ओ-आस्तीं बाक़ी हुआ है नज़्र-ए-ख़ार-ए-दश्त सारा पैरहन मेरा हरे फिर कर दिए ज़ख़्म-ए-जिगर अब्र-ए-बहाराँ ने हुआ शादाब दो छींटों में ये उजड़ा चमन मेरा वो कहते हैं कहो जो कुछ तुम्हें कहना हो ऐ 'कैफ़ी' मगर ताक़त कहाँ से लाए कहने की दहन मेरा