न पूछ राह-ए-तलब में किधर से गुज़रा हूँ तिरे ही पास से गुज़रा जिधर से गुज़रा हूँ ख़ुदा गवाह कि दिल में ख़ुलूस-ए-ग़म ले कर ब-एहतिराम शब-ए-बे-सहर से गुज़रा हूँ तिरी नज़र को भी अब तक ख़बर नहीं ऐ दोस्त इस एहतियात से तेरी नज़र से गुज़रा हूँ तिरे ख़याल को भी ठेस लग न जाए कहीं बहुत सँभल के ग़म-ए-मो'तबर से गुज़रा हूँ कभी कभी तो इक ऐसा मक़ाम आया है मैं हुस्न बन के ख़ुद अपनी नज़र से गुज़रा हूँ बस इस क़दर है मिरी शरह-ए-सरगुज़श्त-ए-हयात किसी की इक निगह-ए-मुख़्तसर से गुज़रा हूँ किसे बताऊँ क्या ऐ 'आरज़ू' मैं कितनी बार ख़ुद उन के ज़ेहन में उन की नज़र से गुज़रा हूँ