न पूछो कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है भला हो दिल का बहुत बे-क़रार गुज़री है हज़ार मस्लिहतें जिस में कार-फ़रमा हों वो इक निगाह-ए-करम हम पे बार गुज़री है है इस्तिलाह-ए-मोहब्बत में जिस का नाम जुनूँ वो एक रस्म बड़ी पाएदार गुज़री है ज़रूर उस ने तिरे पैरहन को चूमा था जो इस तरफ़ से सबा मुश्क-बार गुज़री है वो बाग़बाँ भी कोई बाग़बाँ है जिस की हयात रहीन-मिन्नत-ए-फ़स्ल-ए-बहार गुज़री हे लुटा है कौन ग़रीब-उद-दयार रस्ते में ये किस के ग़म में सबा सोगवार गुज़री है निसार उस पे हूँ मैं जिस की ज़िंदगी 'साक़ी' बशर के औज की आईना-दार गुज़री है