न पूछो तुम को और दुश्मन को दिल में क्या समझता हूँ

न पूछो तुम को और दुश्मन को दिल में क्या समझता हूँ
उसे उल्लू तुम्हें उल्लू का मैं पट्ठा समझता हूँ

डरूँ क्यों वस्ल की शब धौल-धप्पा हाथा-पाई से
इसे तो मैं नियाज़-ओ-नाज़ का रगड़ा समझता हूँ

गया बचपन शबाब आया बुढ़ापा आने वाला है
मगर मैं तो अभी तक आप को बच्चा समझता हूँ

लिए जाता है मुझ को साथ क्यों दुश्मन की महफ़िल में
अबे उल्लू के पट्ठे इस में कुछ धोका समझता हूँ

बुलाती है मुझे घर पर जो तुम घर पर नहीं होते
तुम्हारी माँ को तुम से हर तरह अच्छा समझता हूँ

अदू के घर से उल्टा पाएजामा पहन कर आए
अँधेरी रात है कुछ दाल में काला समझता हूँ

ये तुम ने क्या कहा क्यों दिल लगी की मेरी अम्माँ से
अजी तौबा करो मैं तो उसे ख़ाला समझता हूँ

जो पूछा मुझ से मुश्त-ए-ख़ाक को तुम क्या समझते हो
तो फ़रमाया कि इस्तिंजे का मैं ढेला समझता हूँ

शब-ए-वा'दा तेरी लौट-ओ-पलट से नाक में दम है
कभी उल्टा समझता हूँ कभी सीधा समझता हूँ

किसी ने उन से पूछा 'बूम' को तुम क्या समझते हो
तो बोले मुस्कुरा कर उल्लू का पट्ठा समझता हूँ


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