कर सकी कुछ न तिरी ज़ुल्फ-ए-सियाह-फ़ाम मिरा कुफ़्र के साये में बढ़ता रहा इस्लाम मिरा साक़िया मेज़ पे रहने दे अभी जाम मिरा मस्त आँखों ने तेरी कर दिया उल्टाम मिरा क्या कहा तू ने बुढ़ापे में न ले नाम मिरा हुस्न था ख़ाम तिरा इश्क़ नहीं ख़ाम मिरा लड़ते ही पहली नज़र जान तसद्दुक़ कर दी हो गया साथ ही आग़ाज़ के अंजाम मिरा तुम अगर प्यार से देखो तो अभी जी जाऊँ निगह-ए-नाज़ में है ज़ीस्त का पैग़ाम मिरा 'बूम' चुपके से वहीं दे दिया बोसा उस ने कान में जब ये कहा नींद का इनआ'म मिरा