न रास आई चमन-ज़ार की फ़ज़ा मुझ को मिज़ाज-ए-बर्क़ ने बे-घर बना दिया मुझ को तमाम उम्र भटकते रहे जो राहों में दिखा रहे हैं वही आज रास्ता मुझ को हुजूम-ए-दर्द में दिल ने तो सब का साथ दिया मिला न अपने ही अश्कों का हम-नवा मुझ को वो पास थे तो हर इक शय में दिल धड़कता था वो दूर हैं तो खटकती है हर फ़ज़ा मुझ को ये कारवाँ न मिरी गुमरही पे यूँ हँसता रह-ए-तलब में जो मिलते वो नक़्श-ए-पा मुझ को क़दम क़दम पे सँवारा जिन्हें मोहब्बत में समझ रहे हैं वही अब शिकस्ता-पा मुझ को कोई रफ़ीक़ न रहबर न कोई राहगुज़र उड़ा के लाई है किस शहर में हवा मुझ को 'हयात' दुखती हुई रग को किस ने छेड़ दिया उठी वो टीस कि याद आ गया ख़ुदा मुझ को