न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे वो मुझे देख के पहचान लिया करते थे आख़िर-ए-कार हुए तेरी रज़ा के पाबंद हम कि हर बात पे इसरार किया करते थे ख़ाक हैं अब तिरी गलियों की वो इज़्ज़त वाले जो तिरे शहर का पानी न पिया करते थे अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं लोग पत्थर को ख़ुदा मान लिया करते थे दोस्तो अब मुझे गर्दन-ज़दनी कहते हो तुम वही हो कि मिरे ज़ख़्म सिया करते थे हम जो दस्तक कभी देते थे सबा की मानिंद आप दरवाज़ा-ए-दिल खोल दिया करते थे अब तो 'शहज़ाद' सितारों पे लगी हैं नज़रें कभी हम लोग भी मिट्टी में जिया करते थे