न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ ख़याल-ए-रू-ए-ख़ूबाँ से परी-ख़ाने में रहता हूँ तमाशा-गाह-ए-आलम का तमाशा मुझ से मत पूछो कि जूँ आईना में हैरत के काशाने में रहता हूँ ख़ुम-ए-जोशान-ए-इश्क़-ए-बे-मुहाबा हूँ मैं तब ही तो न शीशे में ठहरता हूँ न पैमाने में रहता हूँ शरीफ़-ए-काबा नित मुझ को सलाम-ए-शौक़ भेजे है मैं काफ़िर गरचे हिंदुस्तां के बुत-ख़ाने में रहता हूँ मुझे ऐ 'मुसहफ़ी' है काम हर दम ज़िक्र-ए-ख़ूबाँ से इसी ख़ातिर तो मैं मशग़ूल अफ़्साने में रहता हूँ