न सितारा न ही हम शम्स-ओ-क़मर चाहते हैं हम दरख़्तों से फ़क़त शाख़-ओ-समर चाहते हैं न ज़मीं चाहते हैं और न ज़र चाहते हैं हम फ़क़ीरान-ए-ख़ुदा एक ही दर चाहते हैं दश्त-ओ-दरिया के अमीं भी तो हैं आवारा नसीब साएबाँ कोई भी हो अपना ही घर चाहते हैं मुंतक़िल अपनी नदामत न करो ग़ैरों तक तजरबा हम भी कहाँ बार-ए-दिगर चाहते हैं शीशा-ओ-चोब के दानों से न बहलेंगे कभी दौर-ए-हाज़िर के ये बच्चे तो गुहर चाहते हैं मंसब-ओ-जाह हक़ीक़त में हैं मोहताजी-ए-दिल सोचिए ख़ूब ये क्या इल्म-ओ-हुनर चाहते हैं बिन बुलाए ही मुसाफ़िर ये चले आए थे वसवसे आप से अब इज़्न-ए-सफ़र चाहते हैं तुम तो अख़बार सुनाते हो जहाँ के 'राही' हम कि दरवेश हैं बातिन की ख़बर चाहते हैं