रहमत बन के उतरी थी क्यों ज़हमत बन गई बेटी मेरा जुर्म-ए-गुनह बतला दो पूछती रह गई बेटी बढ़ती हुई तकरार जहेज़ की और ग़ुर्बत का बोझ अपने आप को आग लगा के फिर इक मर गई बेटी बाग़ी ना-फ़रमान बनी और कभी कलंक का टीका हक़ की ख़ातिर जब भी किसी उसूल पे अड़ गई बेटी ये लड़की कमज़ोर सी लड़की मरियम भी है ज़ोहरा भी राबिया-बसरी बनी तो फिर वलियों से बढ़ गई बेटी