न सुनने में न कहीं देखने में आया है जो हिज्र ओ वस्ल मिरे तजरिबे में आया है नए सिरे से जल उट्ठी है फिर पुरानी आग अजीब लुत्फ़ तुझे भूलने में आया है न हाथ मेरे न आँखें मिरी न चेहरा मिरा ये किस का अक्स मिरे आइने में आया है जवाज़ रखता है हर एक अपने होने का यहाँ पे जो है किसी सिलसिले में आया है है वाक़िआ' हदफ़-ए-सैल-ए-आब था कोई और मिरा मकान तो बस रास्ते में आया है वो राज़-ए-वस्ल था जो नींद में खुला मुझ पर ये ख़्वाब-ए-हिज्र है जो जागते में आया है 'जमाल' देख के जीता था जो कभी तुझ को कहीं वो शख़्स भी क्या देखने में आया है