न तेज़-रौ थे न जोइंदा-ए-मक़ाम थे हम वो हम-सफ़र था तो कैसे सबा-ख़िराम थे हम हुजूम-ए-संग में क्या हो सुख़न-तराज़ कोई वो हम-सुख़न था तो क्या क्या न ख़ुश-कलाम थे हम बहुत क़रीब से देखे जो उस के लब तो खुला कि एक उम्र से क्यूँ इतने तिश्ना-काम थे हम वो सारा दौर था रुस्वाइयों से पहले का कि शहर-यार थे यारों में नेक-नाम थे हम ये मेहरबानी भी हम पे रही मोहब्बत की कि ख़ास रहते हुए भी बहुत ही आम थे हम विसाल का कोई इम्कान ही न था 'ख़ावर' वो ज़र-निगार-ए-सहर था ग़ुबार-ए-शाम थे हम