पता रक़ीब का दे जाम-ए-जम तो क्या होगा वो फिर उठाएँगे झूटी क़सम तो क्या होगा अदा समझता रहूँगा तिरे तग़ाफ़ुल को तवील हो गई शाम-ए-अलम तो क्या होगा जफ़ा की धूप में गुज़री है ज़िंदगी सारी वफ़ा के नाम पे झेलेंगे ग़म तो क्या होगा अभी तो चर्ख़ सितम हम पे ढाए जाता है ज़मीं न होगी जो ज़ेर-ए-क़दम तो क्या होगा मैं डर रहा हूँ कि ज़ाहिद की ख़ुश्क बातों से सराब बन गया बाग़-ए-इरम तो क्या होगा ख़ुद अपनी मौज-ए-नफ़स से ये ज़ाहिदान-ए-किराम बुझा रहे हैं चराग़-ए-हरम तो क्या होगा