न वो दिल-दादा-ए-लुत्फ़-ओ-करम है न उस में ख़्वाहिश-ए-जाह-ओ-हशम है मोअ'त्तल हो गया है इक फ़रीज़ा मुक़फ़्फ़ल चंद हफ़्तों से हरम है पियाला ज़हर का है ज़िंदगी ये मगर लगता है जैसे जाम-ए-जम है बहुत लगता है इक छोटा सा ग़म भी ख़ुशी जितनी मिले उतनी ही कम है मैं कैसे दूर कर दूँ उस को ख़ुद से ये साया ही तो मेरा हम-क़दम है जो ख़ुद मुहताज है क्या उस से माँगूँ न होगा रब जो पत्थर का सनम है निकालो इस को अपने दिल से 'अंजुम' कि ये अरमान ही बाबाए-ए-ग़म है