शिद्दत-ए-दर्द को कुछ और बढ़ा सकता है क़ैद-ए-तन्हाई का ग़म आप को खा सकता है मुंतज़िर रहता नहीं है वो किसी लम्हे का ग़म का बादल तो किसी वक़्त भी छा सकता है या वो क़तरा है मिरा दिल जो रहे आँखों में या वो दरिया है जो कूज़े में समा सकता है ग़म भुलाने को उसे दे दूँ दिलासा लेकिन ये दिलासा उसे ग़म याद दिला सकता है दोस्त मुझ को जो बनाता है ग़रज़ की ख़ातिर वक़्त पर हाथ वो दुश्मन से मिला सकता है जश्न ख़ुशियों का मनाता ही नहीं है जो कभी ऐन मुमकिन है वो हर दर्द छुपा सकता है गर्दन-ए-अम्न पे दहशत की छुरी है 'अंजुम' कौन ऐसे में फिर आवाज़ उठा सकता है