न वो नालों की शोरिश है न ग़ुल है आह-ओ-ज़ारी का वो अब पहला सा हंगामा नहीं है बे-क़रारी का तलब कैसी बुलाना क्या वहाँ ख़ुद जा पहुँचते हैं अगर आलम यही चंदे रहा बे-अख़्तियारी का वहाँ वो नाज़-ओ-इश्वे से क़दम गिन गिन के रखते हैं यहाँ इस मुंतज़िर का वक़्त पहुँचा दम-शुमारी का कभी चश्म-ए-ख़ुमार-आलूद की मस्ती नहीं देखी बजा है हज़रत-ए-नासेह को दा'वा होशियारी का भला क्या ऐसी रोती शक्ल पास आ कर कोई बैठे उठे आख़िर वो झुँझला कर बुरा हो अश्क-बारी का अजब क्या है कि क़ासिद भूल जाए उस का ले जाना लिखूँ जिस नामे में शिकवा तिरी ग़फ़्लत-शिआरी का मिसाल-ए-नख़्ल देखा है उसी को फूलते-फलते किया जिस शख़्स ने हासिल तरीक़ा ख़ाकसारी का हर इक शय का है अंदाज़ा मगर पायाँ नहीं हरगिज़ तिरी ग़फ़लत-शिआरी का मिरी उम्मीद-वारी का ज़ि-बस आँखों में रंगत छा रही है लाला-ओ-गुल की ख़िज़ाँ में लुत्फ़ आता है हमें फ़स्ल-ए-बहारी का कभी सर पाँव पर रखना कभी क़ुर्बान कह उठना हमें थोड़ा सा ढब आता तो है मतलब-बरारी का छुपा कल गोशा-ए-मय-ख़ाना में 'मजरूह' ने देखा यूँही शोहरा सुना था शैख़ की परहेज़-गारी का