न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है हमारी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है फ़रेब-ए-आरज़ू खाएँ तो क्यूँकर तग़ाफ़ुल है न बेगाना-वशी है फ़रोग़-ए-इश्क़ है महरूमियों से वफ़ा-केशी ब-क़द्र-ए-ना-रसी है मिरे क़स्र-ए-तमन्ना की निगहबाँ निगाह-ए-नाज़ की बेगानगी है मोहब्बत के सिवा जादा न मंज़िल मोहब्बत के सिवा सब गुमरही है मोहब्बत में शिकायत क्या गिला क्या मोहब्बत बंदगी है बंदगी है ख़ुदा बर-हक़ मगर इस को करें क्या बुतों में सद-फ़ुसून-ए-दिलबरी है मुझे नफ़रत नहीं जन्नत से लेकिन गुनाहों में अजब इक दिलकशी है न दो हूर-ओ-मय-ओ-कौसर के ता'ने कि ज़ाहिद भी तो आख़िर आदमी है