न दश्त में न चमन में न घर में रक्खा था मिरा सुकून तिरी रहगुज़र में रक्खा था वो तेरी याद थी क्या था जो एक नश्तर सा तमाम उम्र जो मेरे जिगर में रक्खा था गया वो दौर-ए-जुनूँ दिल पे जिस का क़ब्ज़ा था निकल चुका है वो सौदा जो सर में रक्खा था वफ़ा के नाम पे हम ने फ़रेब खाया है ख़ज़फ़ छुपा के किसी ने गुहर में रक्खा था बुझा दिया है ज़माने की आँधियों ने उसे जो इक चराग़ तिरी रहगुज़र में रक्खा था बचा के सब की नज़र से नज़र में रक्खा था तुम्हीं को दिल में तुम्हीं को जिगर में रक्खा था निगाह-ए-इल्म खुली दिल की आँख बंद हुई अंधेरा बे-ख़बरी का ख़बर में रक्खा था बुझी वो शम-ए-मोहब्बत जो दिल की रौनक़ थी निकल गया वो असासा जो घर में रक्खा था ज़माना हो गया किस तरह बा-ख़बर उस से जो राज़ मैं ने दिल-ए-मो'तबर में रक्खा था तुम्हारे आते ही लो आज वो भी ख़त्म हुआ जो फ़ासला मिरी शाम-ओ-सहर में रक्खा था मिरे क़लम ने ये 'रिज़वान' चराग़-ए-शेर-ओ-सुख़न जला के महफ़िल-ए-इल्म-ओ-हुनर में रक्खा था