न दिन अपना न शब अपनी न दिल अपना न जाँ अपनी इसी अंदाज़ से काटी है ये उम्र-ए-रवाँ अपनी वो उस की चश्म-ए-आहू को जो देखा सुर्मा सा मैं ने सुकूँ खोया ख़िरद खोई वो तर्ज़-ए-ज़िंदगाँ अपनी रुख़-ए-गुलनार पर ख़ाल-ए-सियह उस का वो ताबिंदा वो इक तस्वीर जादू और निगाह-ए-ना-तवाँ अपनी कभी मुख़्तार था हालात पर ताबे' थी क़िस्मत भी इधर तो बेबसी ये है कि ना अपनी न हाँ अपनी पता क्या पूछते हो पूछते हो हाल क्या मुझ से बसा हूँ जिस ज़मीं पर वो है बस्ती ला-मकाँ अपनी झुकाई थीं जो उस ने देख के वो शर्मगीं आँखें वहीं से क्या हुई थी इब्तिदा-ए-दास्ताँ अपनी मिरे अशआ'र में पोशीदा हैं सद-रंग-ए-रूमानी 'अमीर' अब ग़ौर से तुम भी सुनो शीरीं ज़बाँ अपनी