न दोस्ती की तरह है न दुश्मनी की तरह ये इल्तिफ़ात तुम्हारा है अजनबी की तरह वही तो लम्हे मता-ए-हयात होते हैं ग़मों के साए में पलते हैं जो ख़ुशी की तरह जला सके तो जला सोज़-ए-इश्क़ यूँ मुझ को कि काएनात पे छा जाऊँ रौशनी की तरह ये किस मक़ाम पे पहुँचा है कारवान-ए-हयात जहाँ ख़ुदी का भी आलम है बे-ख़ुदी की तरह नज़र में उन का तसव्वुर है जाम हाथों में हमारी बादा-परस्ती है बंदगी की तरह वो हँस पड़े मिरी वहशत पे यूँ सर-ए-महफ़िल हर एक ज़ख़्म-ए-जिगर खिल गया कली की तरह ज़रूर 'दर्द' कोई माह-वश है गुलशन में सबा ने फूल खिलाए हैं चाँदनी की तरह