नज़्म-ए-मय-खाना पे आ जाए न इल्ज़ाम कहीं आज साक़ी है कहीं रिंद कहीं जाम कहीं अहल-ए-उल्फ़त भी हुआ करते हैं नाकाम कहीं उन का आग़ाज़ कहीं होता है अंजाम कहीं अपनी बर्बादी-ए-पैहम का नहीं मुझ को मलाल डर ये है आप पे आ जाए न इल्ज़ाम कहीं काश इतना तो कोई अहल-ए-हवस से पूछे तुम को दुनिया में मयस्सर भी है आराम कहीं फिर न बाक़ी रहे दुनिया में अँधेरों का वजूद आ के पर्दा जो उठा दें वो सर-ए-बाम कहीं चाँद तारों में कहीं की है तजल्ली की तलाश पत्थरों से भी तराशे गए असनाम कहीं ज़िंदगी में न कोई लुत्फ़ रहेगा बाक़ी मिट गई 'दर्द' अगर गर्दिश-ए-अय्याम कहीं