न फ़ुर्क़त ने लूटा न आहों ने मारा मोहब्बत भरे इश्तिबाहों ने मारा मिरे दिल को उन की निगाहों ने मारा इन्हीं दो मोहब्बत-पनाहों ने मारा मोहब्बत की इन सैर-गाहों ने मारा तिरी मुल्तफ़ित सी निगाहों ने मारा तुम्हारी निगाहों की बे-शक ख़ता क्या मुझे ख़ुद ही मेरी निगाहों ने मारा परेशाँ परेशाँ वो मासूम नज़रें ग़म-ए-इश्क़ के दाद-ख़्वाहों ने मारा दुहाई है ऐ मंज़िल-ए-हुस्न-ए-जानाँ मोहब्बत की सुनसान राहों ने मारा न देखो मोहब्बत से आईना देखो कि ऐसी ही मुझ को निगाहों ने मारा वो क्या क़द्र-ओ-क़ीमत तिरे ग़म की जानें जिन्हें ज़ीस्त की आम राहों ने मारा मिरी एहतियात-ए-जुनूँ हाए 'बासित' न मंज़िल ने लूटा न राहों ने मारा