न है उमंगों का रंग कोई न अक्स जज़्बों की ताज़गी का थका थका सा बुझा बुझा सा ये कैसा चेहरा है ज़िंदगी का सब आरज़ूओं के तार टूटे बिछड़ गए साज़-ए-दिल से नग़्मे भरा है चीख़ों से मेरा सीना तक़ाज़ा कीजे न रागनी का दसों दिशाओं से घूरती हैं ग़मों के मौसम की ज़र्द आँखें ये कैसे मुमकिन है हो सके अब वजूद सरसब्ज़ आदमी का अना तदब्बुर वक़ार मुझ में तलव्वुन और इंतिशार मुझ में मुझे न हैरत से देख दुनिया मिज़ाज हूँ बीसवीं सदी का तमाम लश्कर अज़िय्यतों के 'शुजा' अब मुंतज़िर खड़े हैं जिसे हो बर्दाश्त कर्ब-ओ-ग़म की करे वो इज़हार आगही का