न हुआ हश्र को हाल-ए-सितम इज़हार अपना न बनाया हमें ज़ालिम ने गुनहगार अपना हाथ महरूमी-ए-तक़दीर के है कार अपना क्या दिखाएँ तुझे मुँह हसरत-ए-दीदार अपना हल्क़ा-ए-काकुल-ए-मुश्कीं के जो मज़मूँ बाँधे बन गया नुक़्ता हर इक नाफ़ा-ए-तातार अपना सहल समझे थे दम-ए-क़त्ल गिराँ-जानी को हो गया काम तिरी तेग़ को दुश्वार अपना देखते ही उसे कुछ कह न सके हश्र में हम हो गया बंद वहाँ भी लब-ए-इज़हार अपना इंतिक़ाम-ए-सितम-ए-ग़ैर से मायूस रहे न हुआ हश्र में भी कोई तलबगार अपना अफ़ई-ए-ज़ुल्फ़ के डसते ही हुआ काम तमाम बह गया आब के मानिंद तन-ए-ज़ार अपना रात उस माह को हम झाँकते ही महव हुए बन गया रौज़न-ए-दर दीदा-ए-बेदार अपना काकुल-ओ-ज़ुल्फ़ की सुलझाई ही मैं पेच पड़ा वर्ना होता न कभी दिल ये गिरफ़्तार अपना रू-सियह ही सिफ़त-ए-नक़्श-ए-नगीं रखता है ख़ूब रौशन है 'हया' बख़्त-ए-सियहकार अपना