न जज़्बों में कोई शिद्दत न गीराई न गहराई फ़क़त लफ़्ज़ों की बैसाखी पे है सारी शनासाई ब-ज़ाहिर देखने में यूँ तो हैं इक जान दो क़ालिब हक़ीक़त में हैं दोनों ही असीर-ए-रंज-ए-तन्हाई ज़बान-ए-मुद्दआ' है जुरअत-ए-इज़हार से क़ासिर कि इन आँखों में देखा हम ने अक्सर ख़ौफ़-ए-रुस्वाई भटकता फिर रहा हूँ मैं सवाद-ए-दश्त-ए-ज़ुल्मत में नज़र आता नहीं रस्ता बसीरत है न बीनाई रुख़-ए-रौशन पे पर्दा कब तलक ऐ हुस्न-ए-ख़ुद-आरा ज़रा पर्दे से बाहर आ कि आलम है तमाशाई जुनून-ए-ख़ुद-नुमाई इब्तिज़ाल-ए-इल्म-ओ-हिकमत है कि हर इक मुब्तदी करता है ख़ुद अपनी पज़ीराई 'शकील-ए-मज़हरी' ऐसी ग़ज़ल कहने से क्या हासिल तख़य्युल में कोई नुदरत न शे'रों में है रानाई