न जिस में आरज़ू होती न जिस में मुद्दआ' होता मुझे भी एक दिल या-रब कोई ऐसा दिया होता शब-ए-वा'दा वो आता भी तो क्या इस के सिवा होता जो मैं सर्फ-ए-वफ़ा होता तो वो गर्म-ए-जफ़ा होता शब-ए-फ़ुर्क़त अगर नाला मिरे दिल का रसा होता फ़लक क्या चीज़ है अर्श-ए-मुअ'ल्ला हिल गया होता दिखा देता अगर मैं दाग़-हा-ए-दिल कभी उन को मिरा ज़िम्मा जो फिर मश्क़-ए-सितम का हौसला होता दिया था दिल तो देता इश्क़ भी अपना उसे या-रब मिला था सर तो सौदा भी तिरा ही या ख़ुदा होता ख़ता क्या यार की इस में जो क़ब्ल-अज़-वक़्त मौत आई वफ़ा करती जो मेरी उम्र तो वा'दा वफ़ा होता न आता था उन्हें क्या मुझ को मिट्टी में मिला देना मगर डर था कि होता ख़ाक भी तो कीमिया होता अदू के दस्तख़त से ख़त मुझे भेजा है काफ़िर ने मुक़द्दर का जो लिक्खा था न क्यूँकर वो अदा होता तिरी कोताह-बीनी ने तुझे खोया है ऐ वाइज़ ख़ुदा को जान जाता गर बुतों से आश्ना होता सर-ओ-तन का चला आता है झगड़ा एक मुद्दत से मदद करती तिरी तलवार तो कुछ फ़ैसला होता तिरे सदक़े निगाह-ए-नाज़ क्यों अग़माज़ करती है हमारी बात बन जाती तिरा नुक़सान क्या होता कहीं पुर-लुत्फ़ है ये क़िस्सा-ए-फ़रहाद-ओ-मजनूँ से हमारे दिल का दुखड़ा भी कभी साहिब सुना होता न आए तुम न आते भेजते तस्वीर ही अपनी मिरे दिल को बहलने का कोई तो मशग़ला होता ग़म-ए-जानाँ न देता साथ मेरा तू भी फ़ुर्क़त में उसी की तरह ज़ालिम काश तू भी बेवफ़ा होता मिरे दिल से वो रह रह कर किसी का नाज़ से कहना अजब इक चीज़ तू होता अगर बे-मुद्दआ होता सुनाता क़िस्सा-ए-ग़म तुझ में ग़म-ख़्वारी अगर होती दिखाता दर्द-ए-दिल तुझ को जो तू दर्द-आश्ना होता दिल-ए-वहशी न कहता था कि बाज़ आ इश्क़-ए-गेसू से मिरी सुनता तो क्यों काफ़िर गिरफ़्तार-ए-बला होता जनाब-ए-ख़िज़्र देंगे साथ क्या सहरा-ए-उल्फ़त में दिल-ए-आफ़त-तलब तू ही हमारा रहनुमा होता ये क्या सौदा-ए-हूरान-ए-ख़याली तुझ को है ज़ाहिद किसी काफ़िर-अदा पर तो फ़िदा मर्द-ए-ख़ुदा होता बड़े नाज़-ओ-निअ'म से हम ने ऐ दिल तुझ को पाला था ख़ुदाई हम से फिर जाती न लेकिन तू जुदा होता खिंचे जाते थे वो ख़ंजर की सूरत वस्ल में 'नश्तर' निकलती ख़ाक हसरत ख़ाक पूरा हौसला होता