न बिखराया करो तुम बैठे बैठे ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को

न बिखराया करो तुम बैठे बैठे ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को
ख़ुदा के वास्ते देखो मिरे हाल-ए-परेशाँ को

अजब अंदाज़ से पिस पिस के होंटों से निकलती है
करूँ क़ुर्बान तेरी इक नहीं पर सैंकड़ों हाँ को

ख़ुदा जाने मज़ा आता है क्या इस में कि हँस हँस कर
वो पहरों देखते रहते हैं मेरे ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ को

उन्हें फिर इस ने भड़काया हुए गर्म-ए-जफ़ा फिर वो
इलाही आग लग जाए हमारी चश्म-ए-गिर्यां को

क़यामत का समाँ फिरने लगा है मेरी आँखों में
कि जब से मैं ने देखा है किसी की चश्म-ए-फ़त्ताँ को

बढ़ी दीवानगी मेरी कुछ ऐसी इश्क़-ए-गेसू में
कि मेरे नाम से होती है वहशत अब बयाबाँ को

गए वो दिन मनाते थे किसी के साथ हम सावन
कि अब तो देखते रहते हैं अपनी चश्म-ए-गिर्यां को

अभी तो है शुरूअ'-ए-फ़स्ल-ए-गुल जोश-ए-जुनूँ ताज़ा
रफ़ू क्यों लोग करते हैं मिरे चाक-ए-गरेबाँ को

तिरे आते ही झाड़ू फिर गई किस किस को रोएँ हम
अलम को यास को हसरत को बेताबी को अरमाँ को

मिरे शेवन से तो आज़ुर्दा थे फिर रो दिए आख़िर
नज़र आया जो मैं जाता हुआ शहर-ए-ख़मोशाँ को

बढ़े फिर नाख़ुन-ए-वहशत कि अय्याम-ए-बहार आए
ज़रा हुशियार रहना ऐ हमारे ज़ख़्म के टाँको

मिरी आँखें ही दुश्मन हो गईं हक़ में मिरे आख़िर
इसी रस्ते उतारा उस ने दिल में तीर-ए-मिज़्गाँ को

बला से गर हमारी जान-ए-मुज़्तर पर गिरे बिजली
उसी अंदाज़ से इक बार फिर ग़ुर्फ़े से तुम झाँको

हुई जाती है क्या क्या लोट इस पर रहमत-ए-बारी
कोई देखे तो महशर में हमारी शर्म-ए-इस्याँ को

न रक्खा जाने के क़ाबिल मुझे बेताबी-ए-दिल ने
किया था मैं ने किस मुश्किल से राज़ी उस के दरबाँ को

मुझे सर फोड़ने की आरज़ू थी यूँ हुई पूरी
गिराया सर पे सैल-ए-अश्क ने दीवार-ए-ज़िंदाँ को

मिरे गिर्या की तुग़्यानी है गोया नूह का तूफ़ाँ
गिराया सर पे सैल-ए-अश्क ने दीवार-ए-ज़िंदाँ को

किसी यूसुफ़-लिक़ा की याद में रोया हूँ मैं इतना
गिराया सर पे सैल-ए-अश्क ने दीवार-ए-ज़िंदाँ को

मिरा बे-ख़ानुमाँ होना मिरी क़िस्मत में लिक्खा था
गिराया सर पे सैल-ए-अश्क ने दीवार-ए-ज़िंदाँ को

मिरी जानिब से है दिल में ग़ुबार उस बे-मुरव्वत के
निकालेगा वो फिर क्या ख़ाक मेरे दिल के अरमाँ को

ख़लिश का ज़ाइक़ा मद्द-ए-नज़र है मुझ को ऐ हमदम
जगह क्यूँकर न दूँ दिल में किसी की नोक-ए-मिज़्गाँ को

वो आए तो मिटे जाते हैं क्यों ये माजरा क्या है
इलाही हो गया ये क्या मिरी हसरत को अरमाँ को

फड़कती है रग-ए-गर्दन मिरी क्यों आज फिर 'नश्तर'
चढ़ाया सान पर क़ातिल ने शायद तेग़-ए-बुर्राँ को


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